किन्नौर डायरी – “अठारो उत्सव”, किन्नौरी संस्कृति का प्रतिबिम्ब

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बात उन दिनों की है जब मैं किन्नौर में नया नया आया था। मेरा  आवास विद्यालय के पास ही गांव में था, जो सांगला से 3 कि०मी० दूर था। मेरे अन्य सहकर्मी सांगला में ही रहते थे। एक दिन विद्यालय के चतुर्थ श्रेणी के कर्मी जिन्हे मैं आपी जी* कहता था, ने मुझ से कहा कि सांगला में मेला लगा है, आप जरूर देखने जाना।
 (*आपी जी शब्द  किन्नौरी भाषा में दादी जी के सम्बोधन के लिये प्रयुक्त किया जाता है)

मैं  तो पहले से ही किन्नौरी संस्कृति, परम्परा तथा रीति-रिवाज से रुबरु होने के लिए उत्सुक था। छुट्टी के बाद मैं राम सिंह सर के साथ सांगला गया। मेला देवता बेरिंग नाग जी के मंदिर के प्रांगण में था। जैसे ही मैं प्रांगण में दाखिल हुआ, सामने का दृश्य देख के मैं आश्चर्यचकित हो गया। इसका कारण था मेरे मस्तिष्क में छपी मेले की परिभाषा, जिसके अनुसार मेले में अलग -अलग दूकानें, विभिन्न तरह के झूले, प्रदर्शनियां, भीड, शोर भरा वातावरण होनी चाहिए थी। लेकिन जो सामने था वो मेरे मस्तिष्क के लिए अप्रत्याशित था और उस परिभाषा के तो बिल्कुल विपरित था जिसे लेकर मैं यहां आया था।

मेरे आंखो के समक्ष का दृश्य ऐसा था जैसे किन्नौर की सम्पूर्ण संस्कृति को मंदिर के प्रांगण में एक सूत्र में पिरो दिया गया हो।किन्नौर के मध्यम लोक संगीत पर पारम्परिक वेशभूषा में लोग लोकनृत्य कर रहे थे। सभी के हाथ पांव एक साथ एक गति में संगीत की लय का साथ दे रहे थे। अगर रंग की बात की जाए तो चारों तरफ हरियाली दिख रही थी। महिलाएं ऊनी साडी जिसे दोडू कहा जाता है, हरे रंग की चोली तथा सोने तथा चांदी के आभूषण धारण किए हुए थी। पुरूष ऊनी पजामे जिसे सूथण कहा जाता है तथा ऊनी कोट पहने हुए थे। और सब के सिर पर थी हरे रंग की गोल टोपी जो प्रत्येक किन्नौर निवासी पहनता है चाहे वो पुरूष हो या महिला।

मेले की सच्ची परिभाषा का ज्ञान मुझे उसी दिन हुआ था। मेल शब्द से बने मेला का अर्थ ही है मेल मिलाप, जिसमें सभी लोग बिना भेदभाव के आपस में मिलें और अपनी लोक संस्कृति को सदृढ बनाएं। और इस मेले का नाम  था  “अठारो”
देवता बेरिंग नाग जी के 6 महिनो के अज्ञातवास से लौटने की खुशी में ये पर्व सांगला में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। उत्सव की खास बात ये है कि इस उत्सव के होने का कोई निश्चित समय नहीं है। कई बार ये उत्सव 20-25 वर्षों पश्चात् भी मनाया जाता है।

इस उत्सव में सांगला से ब्याही सभी बेटियों को परिवार सहित आमत्रिंत किया जाता है। मंदिर  का भव्य प्रांगण लोगों से खचाखच भरा था ।प्रांगण के चारो ओर बनी सीढियों पर बैठकर लोग उस लोकनृत्य को देख रहे थे जिसे “क्यांग” के नाम से जाना जाता है। राम सिंह सर के घर चले जाने के पश्चात मैं वहां अकेला रह गया, हालांकि वहां बहुत लोग थे पर मैं किसी को नहीं जानता था। अपने सहकर्मी संदीप सर को फोन कर के बुलाया, जो किन्नौर जिला से ही सम्बन्ध रखते हैं और उनका रूम सांगला में ही था। हम भी सीढियों पर बैठकर लोकनृत्य का आनंद उठाने लगे। कुछ लोग राक्षसों के मुखौटे लगाकर नृत्य कर रहे थे। यह “मुखौटा नृत्य” था। मुखौटा नृत्य राक्षसों से फसलों की रक्षा करने के लिए किया जाता है, इसे कई स्थानों पर “राउला” तथा च्खोनछ इत्यादि नामों से जाना जाता है। क्यांग के बाद  खुला नृत्य शुरू हुआ जिसमें पंक्ति में ही नृत्य किया जाता है परंतु नृत्य का कोई विशिष्ट तरीका नहीं होता। संदीप सर के कमरे से किन्नौरी टोपी लाकर हम भी नृत्य में शामिल हो गये(मंदिर में टोपी पहनना अनिवार्य है)
न ही मुझे किन्नौरी नृत्य का ज्ञान था, और न ही मुझे गाने के बोल ही समझ आ रहे थे। लेकिन गीत की धुनों पर ही मैं अपने तरीके से नृत्य करता रहा। बाद में थक जाने के कारण हम सीढियों पर बैठे तो मेरा ध्यान लोगों के पैरो पर गया जो एक विशिष्ट लय में थिरक रहॆ थे। तब मेरी समझ में आया कि सब मुझे देखकर हंस क्यों रहे थे? क्योंकि मेरे पांव सबसे अलग तरीके में गतियमान  थे। और अब मैं अपने आप पर ही हंस रहा था। नृत्य के बाद हम वापिस आ गये।

यह उत्सव 3 दिन तक चला। किन्नौरी संस्कृति से मेरा पहला परिचय मुझे सदा याद रहेगा।

– राजेंद्र कुमार 

अठारो उत्सव की कुछ तस्वीरें –

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