किन्नौर डायरी – सांगला की होली।

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सांगला की होली।

जब बात हो उत्साह और उमंग की,

खुशियों,मस्ती और रंग की,

तो जो त्योहार मुस्कान के साथ जेहन में चमकता है वो त्योहार है- होली।

यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।अगर होली के इतिहास की बात की जाए तो प्रह्ललाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास,कामदेव के पुनर्जन्म,शिव की बारात,पूतना वध और अन्य किवदंतियों से जोड़कर देखा जाता है।होली को लेकर पूरे भारत में अलग अलग तरह की परंपरा प्रचलित हैं।बात हिमाचल की करें तो इंद्रधनुषीय रंगों के समान यहां भी होली को अपने अपने तरीके से मनाते हैं।इन्ही में से एक रंग है सांगला की होली का।

‌अगर मैं कहुँ कि हिमाचल के किन्नौर जिले की खूबसूरत घाटी सांगला में मनाई जाने वाली होली जितना आनंद शायद ही कहीं और मिले तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।रंगों और उमंगो का ये त्योहार यहाँ 3 दिनों तक पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।उम्र की दीवारों को लांघकर,लैंगिक भेदभावों से परे, बच्चे, बूढ़े, जवान और महिलाएँ सभी रंगों से सरोबार हंसी ठिठोली करते,नाचते गाते, टोली बनाकर निकल पड़ते हैं जीवन में खुशियों का रंग भरने को।कुछ लोग राम, सीता, लक्षमण, हनुमान, साधुओं तथा राक्षसों का भेष बनाकर टोली की अगुवाई करते हैं।होलिका का पुतला भी टोली के साथ घुमाया जाता है।हवा में रंग होता है, मधुर संगीत होता है, मदिरा की गंध होती है, और होता है एक अहसास – आनंद का, खुशियों का, मस्ती का, या यूं कहें जिंदगी का। टोली जहाँ जहाँ से गुजरती है, विशाल होती जाती है,कारवां बढ़ता चला जाता है और उसी अनुपात में आनंद भी। बीच बीच में टोली को पुरियां, चिलटे, पकोड़े,चुलफैंटिग,परोसे जाते रहते हैं।केतली से निकलती मदिरा आनंद में थोड़ा ईजाफा तो जरूर करती है। तीन दिनों के भ्रमण के पश्चात चौथा दिन होता है फाग मेले का और स्थान होता है स्थानीय देवता श्री बैरिंग नाग जी के मंदिर का प्रांगण। प्रांगण के मध्य में होलिका दहन किया जाता है और चारों ओर पारंपरिक वेशभूषा में पुरुष तथा महिलाएं लोकनृत्य “क्यांग” करते हैं। इस उत्सव को केवल महसूस किया जा सकता है,शब्दों में उस अहसास को बयां कर पाना मुश्किल है।सांगला के होली महोत्सव का गवाह बनना एक गर्व की बात है।एक कभी न भूला जा सकने वाला अनुभव।

राजेन्द्र कुमार

 

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