नफ़रत के बीज (कविता)

0
431

 

नफ़रत के बीज

 

शहरों से दूर,
आधुनिकता से परे,
भौतिकता के पार,
दूर सुदूर क्षेत्र में प्रकृति की गोद में बसा एक गाँव।
गांव के लोगों का अपना ही था काम।

खेती-बाड़ी और पशुओं को चरा लेते थे।
खुशी से जीवन जी लें, बस इतना सा कमा लेते थे।
पैसों की कोई होड़ नहीं थी, बस रिश्तों को निभा लेते थे।
मिलजुलकर रहना सीखा पुरखों से, आगे भी यही सिखा लेते थे।

बैठ उड़न खटोले पर एक दिन,बड़े लोग आये हैं।
कुछ लेना नहीं है उनको, बस देने ही तो आए हैं।
देंगे आपको सब सुख सुविधाएं जिनसे आप वंचित हैं,
सपने पूरे होंगे वह भी जो आप देख ना पाए हैं।

लाये हैं हम नये बीज, जो आपको अच्छा समय दिखाएंगे।
फसलें होंगी पैसों की,आप गिन भी ना पाएंगे।
मुफ्त के इन बीजों को लोगों ने जल्दी से समेट लिया।
कुछ ने ज्यादा,कुछ ने कम, जितना मिला लपेट लिया।

“ये कौन सी फसल के बीज हैं? ”कुछ ने ये सवाल किया।
सपनों में डूबे लोगों ने उस सवाल पे बड़ा बवाल किया।
“कौन है ये?जो बड़े सवाल करते हैं।”

यह गांव के द्रोही हैं, इन्हें गांव से बाहर करते हैं।

बोए बीज फसलें उगी।
अब खुशहाली की शाम हुई।
लड़ाई, झगड़े ,मार काट, ये बातें अब आम हुई।
गांव अब पहले सा ना था, ना वो भाईचारा था।
सब कुछ प्रत्यक्ष था सबके कि,
कौन सा समय बीत चूक था, कौन सा समय आ रहा था।
बस आँखे मूंद रखी थी सबने, समय बीतता जा रहा था।

बो दिए बीज नफरत के वो, सब ने था ये जान लिया।
फेंकेंगे पट्टी खोल आँखो की,सब ने था अब ठान लिया।
बोए हैं बीज अब, तो फसलों को भी तो काटना होगा।
अभी से इतनी नफरत है तो पकने पर जानें क्या-क्या होगा?

पकने से पहले ही काट दी फसलें ।
अब नफरत यहाँ ना टिक पायेगी।
कितने भी कोई पैसे दे दे,
अपनी खुशियाँ ना बिक पाएंगी।

-super RK

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here