1. नया काम नया नाम
खुद को खुदी से ही अलग कर रहा हूं
जीने के लिए एक नया काम कर रहा हूं।
मौकापरस्त ही मिले लोग इस शहर में
तभी रास्ता श्मशान का साफ कर रहा हूं।
बिना बीज के ही उग आते हैं कांटे
और मैं फूलों की रखवाली कर रहा हूँ।
मिट्टी का इंसान और कालिख भरा चेहरा
और कम्बख्त मैं आईना साफ कर रहा हूँ।
क्या पता कब कहाँ से गोली चले?
और मैं तीरो-कमान तेज कर रहा हूँ।
साफगोई सिर्फ चर्चों में है अब ‘दीपक’
इंसान का नाम आज से हैवान कर रहा हूँ।
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2. तुम और कलम
कुछ लिखे बिना
बहुत दिन हुए,
और
तुमसे लड़े बिना भी
आज ये कशमकश
एक नई किताब बन जाना
चाहती है,
और
कलम भी चलने लगी है
पूरी कायनात की स्याही
पीने की जिद्द में।
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3. मैं नादार हूँ
रोज-रोज की महफिलों से मैं बेज़ार* हूँ
सुनता नहीं कोई कान मेरी मैं नाद़ार* हूँ।
इलाहाबाद क्या पथ-पथ पर तोड़ता हूँ पत्थर
नाम कैंची वाले का मैं हथौड़ी वाला लोहार हूँ।
गर्म क्या सर्द क्या सिर्फ काटता हूँ रातें
दिन हुआ नहीं कि मैं सबका हथियार हूँ।
पेट, महल और ये ठाट सब मुझसे हैं
मिट्टी में रहता हूँ बसंत की बहार हूँ।
कागजों के दम पर इतना इतराना ठीक नहीं
तैरती कश्तियांं मेरी भी पर मैं पतवार हूँ।
बनती रहती हैं और गिरती रहती हैं दीवारें
नज़र नहीं जाती मुझपर मैं सबका आधार हूँ।
मुमकिन है तो चला लो दुनिया मेरे बिना
कोई चुनावी शिगूफा नहीं पल-पल का फनकार हूँ।
*ब़ेजार – तंग आ जाना
*नाद़ार- निर्धन।
– दीपक भारद्वाज
Deepak Bhardwaj
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