कविता – नए प्रतिबिम्ब
खो गए हैं
वक्त के आईने से,
जो सपने
संजोए थे मैंने,
समेटने की,
कि थी कोशिश बहुत,
पर बिखर गए
सैलाब बन कर।
धूमिल होते आईने पर
उभर रहे हैं,
प्रतिबिम्ब नए नए !
मिलते नहीं निशाँ
साफ़ करने पर भी,
छिप गए हैं धूल में,
करवट बदल कहीं………
रह जाते हैं बस
आईने यूहीं
खो जाते हैं,
शक्श और सपने
वक्त की परछाई में कहीं !!
– ‘नीब’
28-11-2015
बेहतरीन
खूबसूरत कविता