किन्नौर डायरी – बहुपति प्रथा

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भारत विविधताओं का देश है। यहां पर अनेकों परम्पराएं, रिती रिवाज तथा प्रथाएं देखने को मिल जाएंगी। एक ऐसी ही प्रथा है बहुपति प्रथा। बहुपति शब्द सुनते ही जो पहला नाम जेहन से टकराता है, वो था द्रौपदी का। शायद आपके जेहन में भी यही नाम आता हो क्योंकि ये भारत के सबसे बडे महाकाव्य का “महाभारत” का बहुचर्चित पात्र है, जिसमें द्रौपदी के पांच पति थे। कथा के अनुसार अज्ञातवास के समय जब पांडवो ने ब्राह्मणों का रूप लिया था तो जो भी वस्तु वे भिक्षा में प्राप्त करते थे, माता कुंती पांचो में बराबर बांट देती थी। एक दिन जब अर्जुन स्वयंवर से द्रौपदी से विवाह कर के लौटे तो कुटिया के बाहर से ही मां को आवाज लगा के बोले   “देखो मां आज मैं  किसे लाया हुं?”  घर के कार्यों में व्यस्त होने के कारण कुंती ने जवाब दिया कि “जो भी है पांचो भाई आपस में बांट दो”। इस प्रकार मां के कथन का पालन करते हुए द्रौपदी की शादी पांचो पांडवो से हो गई।  पर इस सवाल का तार्किक जवाब आज भी नहीं मिलता कि द्रोपदी को पाँच पतियों का अभिशाप क्यों झेलना पड़ा? मैं हमेशा ही इसे एक कहानी की तरह मानता था, लेकिन बाद में कुछ पुस्तकों से पता चला कि हिमाचल के जनजातीय क्षेत्र किन्नौर में भी ये प्रथा चलती है। तब भी मैने यही सोचा था कि प्राचीन समय मे ये प्रथा चलन में रही होगी। बाद में जब मुझे किन्नौर आने का मौका मिला तो मुझे ये जानकर बडा आश्चर्य हुआ कि आज भी किन्नौर में ये प्रथा विद्यमान है। कहा जाता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडवो ने किन्नौर में आवास किया था, तभी से ये प्रथा चलन में है। हालांकि कुछ लोग इस प्रथा को पांडवो के समय से भी प्राचीन मानते हैं। इस प्रथा के अनुसार लडकी की शादी एक परिवार  के सभी भाइयों से की जाती है। समय का उचित विभाजन रहने से यह प्रथा दाम्पत्य जीवन पर भी अनुचित दबाव नहीं डालती। दरवाजे पर रखी हुई टोपी इस बात का सूचक होती है कि कोई भाई इस समय वयक्तिगत क्षण बिता रहा है। इस सूचक का सभी भाई सम्मान करते हैं। सभी सन्तानें अपने कानूनी पिता को पिताजी तथा उसके अन्य भाइयों को मझले पिताजी छोटे पिताजी आदि कहते हैं। इससे परिवार की सम्पत्ति का बटवारा नहीं होता, समृद्धि बनी रहती है और परिवारों के टुकडे नहीं होते। बहुपति प्रथा को जीने वाली महिलाएं स्वयं को अधिक सुखी, अधिक सुरक्षित, अधिक स्नेह संचित अनुभव करती हैं और एकाकी पति वाली महिलाओं की तुलना में अपने को अधिक उदार मानती हैं। उन्हे पति की मृत्यु के पश्चात भी विधवा होने के दंश को नहीं झेलना पडता। वे शेष जीवन सुखी सुहागिन के रूप में जीती हैं। इस परंपरा के पक्ष में कुछ भी कारण गिनाए गये हों, लेकिन कुछ प्रश्न हैं, जो मेरे मस्तिष्क में इस प्रथा ने उकेरे हैं। आज हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं तो क्या यह परंपरा स्त्री को पुरुष की संपत्ति समझने का ही एक भयावह रूप  नहीं है? क्या ये प्रथा स्त्री विरोधी नहीं है? क्या अजीब से तर्क देकर आज भी परम्परा के नाम पर ढोई जा रही ये रीति एक कुरीति तो नहीं? क्या कोई स्त्री अलग अलग पुरुषों से एक समान प्रेम कर सकती है? क्या इस प्रथा में महिलाओं के पक्ष को भी देखा जाता है? क्या सभी भाई इस प्रथा में खुशहाल जीवन व्यतीत कर पाते हैं? प्रश्न बहुत हैं, और मेरा मकसद किसी की परम्परा, रीति रिवाज का विरोध करना कदापि नहीं है। लेकिन आज समय आ गया है कि परम्परा के नाम पर चले आ रहे उन रिति रिवाजों को छोड दिया जाए जो हम पर लादे गये हैं, जिन्हे हम स्वेच्छा से नहीं बल्कि समाज के लिए कांधे पर लादे हुए हैे । अब परिवर्तन आ रहा है तथा नई पीढी इस प्रथा का दामन छोड रही है। सभी भाई अब अलग विवाह कर सुखी वैवाहिक जीवन जीने लगे हैं। यह सभी के लिए एक शुभ संकेत है। – राजेंद्र कुमार 

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