कहानी – नन्नू की मैं मैं

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सर्द हवाओं के झोकों ने एक दम से करमू को झकझोर सा दिया। जाड़ों की धुप आदमी को कितना आलसी बना देती है, यही सोचते हुए करमू फिर से बचपन की यादों में खोने लगा।

दो भाइयों में छोटा था करमू, पर बड़े भाई का बचपन में ही देहांत हो गया था। पिता तो पहले ही गुजर गए थे, करमू अपनी माता की जीने की एक मात्र उम्मीद थी। पिता के गुजर जाने के बाद सभी रिश्तेदारों ने उनसे कन्नी काट दी थी। फिर भाई की मौत के बाद तो माँ बिलकुल ही अकेली पड़ गई थी। खेलने कूदने के दिनों में ही करमू को माँ के साथ  बंजर पहाड़ी खेतों पर जी जान लगानी पड़ी थी, होने को तो इन खेतों में कुछ भी नहीं होता था पर अत्यंत ही गरीबी और बेहाली में ये पत्थरीले खेत ही उनकी भूख मिटाने के साधन थे।

करमू माँ के साथ अपने झोपड़ी नुमा घर में रहता था, जो गांव से थोड़ा दूर नाले के पास था। ठाकुरों के गांव वाले उन्हें गांव में घुसने नहीं देते थे। जिल्लत भरी जिंदगी की शुरुवात बचपन से ही हो चुकी थी। कुछ साल पहले करमू अपने भाई के साथ गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाया करता था। पर भाई की अनजान बीमारी से हुई मौत के बाद स्कूल जाना भी बंद हो गया। अब बस माँ ही उसका सब कुछ थी।

ख्यालों में खोते हुए करमू को स्कूल के दिनों की याद आ गई और वो रौबदार डांट भी जब दोनों भाई स्कूल में अन्य बच्चों के साथ खेल रहे थे, तब गांव के बड़े लड़कों ने अपने छोटे भाईओं को फटकारा था कि “तुम इन नीचों के साथ क्यों खेल रहे हो ?” यह बात आज भी करमू के कानों में गूंजती रहती है।

उस दिन दोनों भाई रोते रोते घर चले गए थे, और घर जा कर माँ से बड़ी मासूमियत से पूछा था कि  माँ ये “नीच” क्या होता है ? और स्कूल में आये उन बड़े लड़कों ने हमें नीच क्यों कहा ? माँ के पास बच्चों के सवालों का कोई जबाब नहीं था, माँ ने बस इतना कहा की धीरे धीरे तुम सब सब समझ जाओगे, अभी बस यह समझो कि यही हमारा भाग्य है। बच्चे माँ के जबाब से संतुष्ट न होने के बावजूद आगे प्रश्न नहीं कर पाए थे।

वक़्त पहाड़ों की ठण्डी हवाओं की तरह गुजरता गया, करमू और माँ जैसे तैसे गुजर बसर करते गए। जब करमू बारह साल का हो गया तो माँ मायके से बकरी का बच्चा ले आई, ताकि करमू खुद को अकेला महसूस ना करे। जल्दी ही छेली (बकरी के बच्चे को छेली कहते हैं) के साथ करमू की अच्छी दोस्ती हो गई। माँ के साथ काम करने के बाद करमू अपनी नई दोस्त के साथ खेलता रहता।

करमू गांव जाने से बहुत डरता था, उसे गांव के लड़कों से डर लगता था, पर मज़बूरी में कभी कभार गांव जाना ही पड़ता, क्योंकि हर जरुरत का सामान उनके घर नहीं हो सकता था। कभी कभी गांव वाले उनको अपने पुराने कपड़े और जूते भी दे देते थे। जिस तरह का उनके साथ भेदभाव होता उससे करमू के मन को बहुत आघात लगती पर मज़बूरी इंसान को बेबस कर देती है। गांव वाले उन्हें कभी अपने आँगन और गौशाला से आगे जाने नहीं देते, और तो और सामान भी दूर से फेंक कर ही देते, कभी कभार अगर कोई खाना भी देता तो भी इस तरह ही देता। करमू की माँ पर तो शायद इन बातों का इतना असर नहीं पड़ता पर करमू अंदर ही अंदर घुटता रहता। माँ को तो शायद आदत भी हो चुकी थी। इन घटनाओं ने करमू पर बहुत प्रभाव डाल दिया था। वह अक्सर अपनी प्यारी दोस्त से बातें करता कि हम किस तरह के इंसान हैं, देखने में तो हूबहू उन्हीं की तरह हैं, पर वो हमें कुत्तों से भी नीच समझते हैं। ऐसा हममें क्या अलग है, जो उनमें नहीं है या जो उनमें है पर हममें नहीं हैं। करमु अपनी बातें जारी रखते हुए बोलता है कि माँ बोलती है, भगवान ने हमें छोटी जाति का बनाया है और उन्हें बड़ी जाति का ! पर माँ ऐसा कभी नहीं बताती कि क्यों ? बस बोलती है कि हमारे कर्म में ही छोटी जाति लिखी होगी। करमू को इन बातों पर भरोसा सा नहीं होता, उसके दिमाग यही प्रश्न चलते रहते। और छेली से बोलता “यार हमारा भगवान सही नहीं है उसने बहुत गलत किया है, इससे तो अच्छा वो मुझे इंसान ही नहीं बनता !” छेली से पूछता क्या तुम्हारे भगवान ने भी बकरियों में जातियां बनाई है ? और तुम कौन सी जाति को हो ? भावनाओं में बहा करमू फिर होश में आता और सोचता बेचारी बकरी तो बोल भी नहीं सकती और खूब रोता।

धीरे धीरे छेली बकरी बन जाती है और करमू भी जवान होने लगता है। माँ की उम्र भी ढलने लग गई होती है। अब माँ से इतना काम भी नहीं हो पाता, करमू काम की जिम्मेवारी अपने सिर ले लेता है, खेतों से साथ साथ अब गांव में मजदूरी करने भी जाने लग जाता है। उसकी दोस्त बकरी की तीन नन्ही बकरियां के जन्म ले लेने के बाद माँ पर भी काम का बोझ बढ़ जाता है। जिंदगी सही सही चल रही थी पर करमू के साथ गांव मजदूरी करने जाने के बाद भेदभाव की घटनाएं बढ़ गई थी, जिससे उसको मन ही मन बहुत गुस्सा आता, पर गरीब और लाचार करमू गुस्से को अंदर ही खा जाया करता।

कुछ सालों बाद करमू के साथ जो घटित होता है उससे करमू का भगवान और इंसानियत से भरोसा उठ गया। माँ कुछ दिनों से बीमार थी, करमू गांव के वैध से लगातार दवाइयां ला कर खिलाता रहा पर माँ तबियत में सुधार नहीं हो रहा था। माँ की सेहत दिन व दिन बिगड़ती जा रही थी, और वहीँ पिछले तीन दिन से लगातार बर्फ़बारी हो रही थी। करमू माँ को शहर ले जाना चाहता था पर बर्फ से भरी पगडंडियों में अकेले ले जाना असंभव था। करमू गांव जा कर गांव वालों से गुजारिश करता है कि उसकी माँ बहुत बीमार हो चुकी है, अब शहर में ही इलाज संभव है, आप लोगो से विनती करता हूँ कि माँ को शहर ले जाने में मेरी मदद कर दीजिये। पर गांव में किसी ने करमू का साथ नहीं दिया, करमू ने बहुत मिन्नते की, गिड़गिड़ाया और कहा की इस गांव के अलावा उसका यहाँ कोई नहीं है, हम लोगों ने आप लोगों की इतनी मजदूरी की है, आप लोग मेरी माँ को बस शहर तक पंहुचा दो। पर गांव के एक भी आदमी ने करमू का साथ नहीं दिया और कहा की हम किसी नीच को उठा नहीं सकते क्योंकि यह हमारे देवता को मंजूर नहीं है।

करमू एक बार फिर से लज्जित हो कर घर की तरफ लौटने लगा, उसके मन में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे, मन ही मन उनके देवता और भगवान को कोषता हुआ जल्दी जल्दी घर की तरफ लौट रहा था। अब उसके पास घर से पांच किलो मीटर दूर अपने मामा के गांव से मदद लाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था। पर तब तक माँ बच न सकेगी ये डर करमू को सताए जा रहा था।

घर में बकरियां भूख से मिनमिना रही थी, और माँ अभी जिन्दा थी पर दर्द की कराहटें करमू का कलेजा चीर रही थी। माँ ने दो दिन से खाना भी छोड़ दिया था। करमू माँ के पास बैठ गया, अपने आंसू छुपाते हुए बोला माँ तुम ठीक हो जाओगी – “मैं अभी मामा के घर जा के शहर जाने का इंतजाम करता हूँ।” माँ अब आँखों से ही बातें कर रही थी, दर्द से चेहरा और ऑंखें लाल हो चुकी थी। करमू ने माँ को पानी पिलाया और लाठी उठाते हुए बोला, माँ चिंता मत करना जल्दी ही लौट आऊंगा। तक़रीबन तीन घंटों बाद करमू मामा और कुछ लड़कों को लेकर घर पहुंचा, घर में बकरियां जोर जोर से मिनमिना रही थी, पर माँ चुपचाप बेसुध पड़ी थी, करमू शायद देखते ही समझ गया और बेहोश हो कर गिर पड़ा। सभी की ऑंखें गमगीन थी। मामा अपनी छोटी बहन को मृत देख उदास सा हो गया था पर अब कुछ किया भी नहीं जा सकता था। मामा ने एक लड़के को घर में सन्देश पहुंचने के लिए वापिस भेज दिया और बाकि जंगल में लकड़ियां काटने चले गए। जब करमू को होश आया तब तक अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियां काटी जा चुकी थी। करमू को कुछ समझ नहीं आ रहा था, वो बावला सा हो चूका था, जोर जोर से चिल्लाने की वजह से उसका गला भी रुधं चूका था।

माँ के जाने के बाद करमू बिलकुल अकेला पड़ गया था। मामा कभी कभार करमू के पास आकर जरुरत का सामान छोड़ जाता और हाल चाल जान कर चले जाता। करमू अंदर से टूट चूका था और किसी से भी बात नहीं करता था। उसने अब गांव में मजदूरी करना छोड़ दी थी, अब सिर्फ जंगल में बकरियां चराता शाम ढले घर आ के सो जाता। बस यही करमू की जिंदगी की दिनचर्य बन गई थी। बचपन में खरीदी हुई बांसुरी और बकरियां ही उसके सच्चे साथी थे, छोटी बकरी को जब दो बच्चे हुए तो करमू ने एक बच्चे का नाम “नन्नू” रख लिया, सफ़ेद रंग की नन्नू को हमेशा अपने पास रखता। जंगल में जब बकरियां चर रही होती तो करमू बांसुरी के मधुर संगीत से अपना और नन्नू का मन बहलाता।

यादों में खोये करमू को पता ही नहीं चला कि नन्नू उसके साथ बैठी है, सर्दियों की धुप में अलसाते हुए करमू की आंख लग जाती है और नन्नू भी साथ ही सुस्ताने लगी है। अचानक नन्नू झट से “मैं-मैं” करती हुई अपनी माँ की तरफ भाग गई और करमू की आंख खुल गई। नन्नू को माँ के पास भागते देखते ही करमू की आँखों से आंसू बहने लग गए। करमू बांसुरी जोर से पत्थर पर पटकता है और खाई में फेंक देता है, और जोर जोर से चिल्लाता है –

क्या जिंदगी है मेरी, ऐसी जिंदगी से तो मौत बेहतर..?

फिर रोते हुए सभी बकरियों को जंगल में ही छोड़ कर घर की तरह निकल जाता है। नन्नू करमू के पीछे पीछे दौड़ी आ रही थी, जिसका थोड़ी देर बार करमू को एहसास हो जाता है, वह नन्नू को गोद में उठा कर दोवारा बकरी के पास छोड़ आता है क्योंकि करमू, माँ की कमी को अच्छी तरह समझता है, जब नन्नू अपनी माँ से घुल मिल जाती है तभी करमू वहां से एकदम खिसक जाता है।

मन ही मन सोचता है कि इस गांव में अब रहना ही नहीं, जहाँ इंसानों की कोई क़द्र नहीं। घर पहुंचते ही झोपडी को आग लगा देता है और गांव को पीछे छोड़ देता है। पुरानी यादों के झोंके करमू को बार बार रोकने की कोशिश करते रहे पर, करमू के पैर रुक नहीं थे।

– ‘नीब’

2 COMMENTS

  1. बेहतरीन ! ऐसे गंभीर विषय पर लिखी गई एक मर्मस्पर्शी कहानी जिसे समाज गंभीर नहीं मानता।

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